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Sita Swayamvar
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सीता स्वयंवर
सीता मैया राजा जनक की पुत्री थी. वास्तव में माता सीता का जन्म धरती मैया से हुआ था , इसलिए इनका एक नाम भूमिजा भी हैं. सीता मैया का जीवन साधारण नहीं था. वे बचपन से ही कई असाधारण काम करती रहती थी, जिनमे से एक था शिव के धनुष से खेलना जिसे कई महान महारथी हिला भी नहीं सकते थे. यह शिव धनुष पृथ्वी के संरक्षण के लिये भगवान विश्वकर्मा ने बनाया था, जिसे भगवान शिव ने भगवान परशुराम को दिया. परशुराम जी ने इस धनुष से कई बार पृथ्वी की रक्षा की और बाद में इसे राजा जनक के पूर्वज देवराज के संरक्षण में रख दिया. यह दिव्य धनुष इतना ज्यादा भारी था, कि इसे बड़े-बड़े शक्तिशाली राजा हिला भी नहीं सकते थे, लेकिन नन्ही सीता इसे आसानी से उठा लिया करती थी. यह दृश्य देख राजा जनक को अहसास हुआ, कि सीता कोई साधारण कन्या नहीं हैं ,यह कोई दिव्य आत्मा हैं, इसलिए उन्होंने बाल्यकाल में ही निश्चय कर लिया, कि वे सीता का विवाह किसी साधारण मनुष्य से नहीं करेंगे, लेकिन वे सीता के लिए दिव्य पुरुष को कैसे खोजे. यह सवाल उन्हें अक्सर सताता था, तब उन्हें ख्याल आया, कि वे स्वयंवर (स्वयम्वर का अर्थ यह होता था, कि इसमें कन्या स्वयम अपनी इच्छानुसार अपने लिये पति का चुनाव कर सकती थी.) का आयोजन करेंगे, जिसमे यह शर्त रखी जाएगी, कि जो धनुर्धारी शिव के इस महान दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायेगा, वो ही सीता के योग्य समझा जायेगा.
शर्त के अनुसार सभी राज्यों के राजाओ को स्वयम्बर का निमंत्रण दे दिया गया. यह निमंत्रण अयोध्या भी जाता हैं, लेकिन अयोध्या के राज कुमार राम गुरु वशिष्ठ के साथ वन में रहते हैं और वही से एक सभा दर्शक के तौर पर स्वयम्बर का हिस्सा बनते हैं.
प्रतियोगिता शुरू होती हैं कई बड़े-बड़े राजा उठकर आते हैं, लेकिन शिव के उस दिव्य धनुष को हिला भी नहीं पाते. यहाँ तक की इस स्वयम्बर में रावण भी हिस्सा लेते हैं और धनुष को हिला भी नहीं पाते.
यह देख राजा जनक को अत्यंत दुःख होता हैं. वे कहते हैं कि क्या इस सभा में मेरी पुत्री सीता के योग्य एक भी पुरुष नहीं हैं. क्या मेरी सीता कुंवारी ही रह जायेगी, क्यूंकि इस सभा में एक भी व्यक्ति उसके लायक नहीं, जिस धनुष को वो खेल-खेल में उठा लेती थी, उसे आज इस सभा में कोई हिला भी नहीं पाया, प्रत्यंचा तो बहुत दूर की बात हैं. जनक के द्वारा कहे शब्द लक्षमण को अपमान के बोल लगते हैं और लक्षमण को बहुत क्रोध आता हैं, वे अपने भैया राम को प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का आग्रह करते हैं, लेकिन राम ना कह देते हैं, कि हम सभी यहाँ केवल दर्शक मात्र हैं. राजा जनक के ऐसे करुण वचन सुनकर गुरु वशिष्ठ राम से स्वयम्बर में हिस्सा लेने का आदेश देते है. गुरु की आज्ञा पाकर श्री राम अपने स्थान से उठकर दिव्य धनुष के पास जाते हैं. सभी की निगाहे राम पर ही टिकी जाती हैं, उनका गठीला शरीर, मस्तक का तेज सभी को आकर्षित करता हैं. श्री राम धनुष को प्रणाम करते हैं और एक झटके में ही उसे उठा लेते हैं और जैसे ही प्रत्यंचा चढ़ाने के लिये धनुष को मोड़ते हैं, वह टूटकर दो हिस्सों में गिर जाता हैं. इस प्रकार शर्त पूरी होती हैं और सभी तरफ से फूलों की वर्षा होने लगी. देवी देवता भी आकाश से भगवान राम पर फूलों की वर्षा करते हैं . सीता जी श्री राम के गले में वरमाला डाल कर उनका वरण करती हैं और मिथिला में जश्न का आरम्भ होता हैं, लेकिन धनुष के टूटने का आभास जैसे ही भगवान परशुराम को होता हैं. वे क्रोध से भर जाते हैं और मिथिला की उस सभा में आ पहुँचते हैं, उनके क्रोध से धरती कम्पित होने लगती हैं, लेकिन जैसे ही श्री राम ने भगवान परशुराम के चरण स्पर्श कर क्षमा मांगते हैं . भगवान परशुराम समझ जाते हैं, कि वास्तव में राम एक साधारण मनुष्य नहीं, अपितु भगवान विष्णु का अवतार हैं. और वे अपने क्रोध को खत्म कर सिया राम को आशीर्वाद देते हैं.
भगवान राम और देवी सीता का विवाह विवाह पंचमी को सीता के स्वयम्बर के बाद उनकी तीनो बहनों उर्मिला, माधवी एवम शुतकीर्ति का विवाह क्रमशः लक्षमण,भरत एवम शत्रुघ्न से किया जाता हैं और चारों बहने एक साथ अयोध्या में प्रवेश करती हैं.
श्री राम से विवाह के बाद पहली रात में जब देवी सीता दुखी होकर बैठी हुई थी. तब भगवान राम उनसे इस दुख का कारण पूछते हैं. तब सीता जी उसने कहती हैं, प्रभु आप तो राज कुमार हैं और राज कुमार की तो कई पत्नियाँ होती हैं,आपकी भी होंगी और तब आप मुझे भूल जायेंगे. तब श्री राम अपनी पत्नी सीता को वचन देते हैं, कि वे कभी दूसरा विवाह नहीं करेंगे. सदैव अपनी एक पत्नी के साथ ही जीवन व्यतीत करेंगे. श्री राम अपनी पत्नी सीता को विवाह की पहली रात यह वचन देते हैं, जिसे सुन सीता स्तब्ध रह जाती हैं. श्री राम अपने इस वचन का आजीवन निर्वाह करते हैं. जब किन्ही कारणों से सीता और राम का विच्छेद हो जाता हैं, तब भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम अपने वचन का पालन करते हैं और दूसरा विवाह नहीं करते.
इस प्रकार भगवान राम और देवी सीता मर्यादा का एक नया इतिहास रचते हैं और अपने जीवन से मनुष्य जाति को पति पत्नी के धर्म का बोध कराते हैं, इस तरह यह पौराणिक कथायें मनुष्य को धर्म का आधार बताती हैं एवं सही गलत का बोध कराती हैं. यह थी माता सीता के स्वयम्बर की कथा जिसके बाद उनके जीवन का नया संघर्ष प्रारम्भ होता हैं और वे दोनों विकट से विकट स्थिती में एक दुसरे का साथ देते हैं और मनुष्य जाति को पति पत्नी का धर्म सिखाते हैं.