Leela - ¼yhyk½
Maharas Leela
¼egkjkl yhyk½
शरद पूर्णिमा को चंद्रमा पूर्ण सोलह कलाओं से युक्त होता है, इसीलिए श्रीकृष्ण ने महारास लीला के लिए इस रात्रि को चुना था। इस रात चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसता है और मां लक्ष्मी पृथ्वी पर आती हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह रात्रि स्वास्थ्य व सकारात्मकता प्रदान करने वाली मानी जाती है।
अपने यहां लगभग सभी पर्व दिन में मनाए जाते हैं, पर शरद पूर्णिमा ऐसा पर्व है, जिसे रात्रि में मनाए जाने का विधान है। आश्विन मास की पूर्णिमा को दिन में कोजागर व्रत रखा जाता है और रात्रि में नृत्य के साथ, जिसे ‘कौमुदी उत्सव’ कहते हैं, खीर बना कर खुले आकाश के नीचे जाली से ढक कर रख देते हैं। इस रात चंद्रमा की किरणों से अमृत बरसता है। यह पर्व बृजवासियों को सर्वाधिक प्रिय है। कारण यह कि इस रात कृष्ण ने गोपियों के साथ रास नृत्य किया था। श्रीकृष्ण द्वारा खेली गई लीला, जिसे महारास लीला कहते हैं, को समझने की दो दृष्टियां हो सकती हैं। एक तो यह कि सारा ब्रह्मांड नृत्य रत है, बीच में प्रकाश पुंज स्वरूप कृष्ण तत्व स्थिर है और समस्त तारामंडल हैं बृज की गोपियां। इसी दृश्य की तुलना वृंदावन में हुए महारास से की जा सकती है। दूसरा अर्थ है इंद्रियों से बंधे जीव का पूर्ण पुरुष कृष्ण के साथ नर्तन।
इंद्रियों का अर्थ ‘गोपी’ भी होता है। जो अपनी इंद्रियों से भगवत रस का पान करे, उसे गोपी कहा जाता है। रासलीला में गोपियों के भी दो भेद हैं। नित्यसिद्धा व साधनसिद्धा। इनमें साधनसिद्धा गोपियों के भी कई प्रकार हैं। जैसे श्रुतिरूपा, ऋषिरूपा, अन्यपूर्वा व अनन्यपूर्वा आदि। जिन वेदाभिमानियों ने सिद्ध तो कर दिया कि ईश्वर है, पर स्वयं जिनका कृष्ण से साक्षात्कार नहीं हुआ, वे श्रुतिरूपा गोपी बन कर बृज में पैदा हुए। ऋषि जीवन जीकर भी जो श्रीकृष्ण को समझे नहीं, वे ऋषिरूपा गोपी बन कर बृज में पैदा हुए। वैवाहिक जीवन जीते हुए उस जीवन के प्रति अरुचि होने पर जो कृष्णोन्मुख हुए, वे अन्यपूर्वा गोपी बन कर वृंदावन में पैदा हुए और जो जन्म से ही वैरागी पैदा हुए, जैसे- मीरा या कि व्यासपुत्र, उन्हें अनन्यपूर्वा गोपी कहा जाता है।
एक बार श्रीकृष्ण को कुंज तक आने में देर हुई। गोपियां बेहाल। कुछ देर बाद जब श्रीकृष्ण आए तो उन्होंने बताया कि यमुना के उस पार उनके गुरु दुर्वासा ऋषि ठहरे हैं। उन्हीं के दर्शन करके आते हुए देर हो गई। गोपियां चकित। उन्होंने कहा- अगर दुर्वासा ऋषि आपके भी गुरु हैं तो हमारा कर्तव्य बनता है कि उनके लिए पकवान बना कर ले जाएं। श्रीकृष्ण ने कहा- दुर्वासा सिर्फ दूर्वा का रस ही पीते हैं, फिर भी क्या पता, तुम्हारी निष्ठा देख कर पकवान ग्रहण कर लें। कई सारी गोपियां दुर्वासा के सत्कार के लिए स्वादिष्ट आहार का थाल लेकर चलीं। मगर यह क्या? यमुना में बाढ़ आई हुई थी। उदास गोपियां श्रीकृष्ण के पास दुखड़ा रोती हुई आईं। श्रीकृष्ण ने कहा- दोबारा फिर यमुना के पास जाओ और कहो कि अगर कृष्ण आजीवन ब्रह्मचारी रहा है और नितांत अनासक्त है तो हमें मार्ग दें। गोपियां मन ही मन हंसी कि हमेशा तो हमारे साथ रंगरेलियां मनाते हैं और कह रहे हैं अपने को अनासक्त योगी। फिर भी उन्होंने यमुना तट पर जाकर वही शब्द दोहराए। यमुना ने उसी क्षण गोपियों को राह दे दी। यमुना पार जाकर गोपियों ने दुर्वासा ऋषि को अपने हाथ से थाल पर थाल खिलाए। गोपियां जब लौट कर चलीं तो यमुना में फिर बाढ़ आई हुई थी। गोपियों ने दुर्वासा के पास लौट कर अपनी परेशानी व्यक्त की। दुर्वासा ऋषि ने पूछा- आ कैसे पाई थीं? गोपियों ने श्रीकृष्ण के शब्द दोहरा दिए। उत्तर सुन कर दुर्वासा ने गोपियों से कहा- जाओ और जाकर यमुना से कहो कि दुर्वासा अगर नित्य उपवासी है तो हमें राह दें। वैसा ही हुआ। अचरज में डूबी गोपियां सोचने लगीं कि ये गुरु-शिष्य दोनों विचित्र हैं। एक ओर ढेर सारे पकवान भरे थाल डकार जाने वाला गुरु स्वयं को नित्य उपवासी कह रहा है और हमारे साथ रंगरेलियां मनाने वाला उनका शिष्य स्वयं को योगी ब्रह्मचारी बताता है। गोपियां नादान हैं। दरअसल श्रीकृष्ण और दुर्वासा दोनों आसक्ति रहित थे।
श्रीकृष्ण ने गृहस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम दोनों को एक में मिला दिया था। ऐसे अनासक्त योगी श्रीकृष्ण की आराधना करने वाला धीरे-धीरे स्वयं भी निष्काम हो जाता है। कर्म वो भी करता है, मगर नितांत अनासक्त भाव से। (याद करें गीता का अनासक्त कर्म सिद्धांत) रासलीला में गोपियां पार्थिव शरीर का अतिक्रमण कर गई होती हैं। वे मात्र चिति तत्व हैं। इसीलिए भागवतकार ने कहा है- मायारहित शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही रास है। रास में आत्म तत्व का परम तत्व में निर्विकार मिलन होता है। उसे काम लीला मानना कोरी नादानी है। वह काम लीला नहीं, काम विजय लीला है।